बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
चार
हनुमान एक ऊंची शिला पर खड़े थे। बीच आकाश में सूर्य चमक रहा था। सामने शिला के पगों से टकराता हुआ, वैदूर्य मणि के रंग का सागर का जल था। शिला, पानी से कोई पांच हाथ ऊंची थी; किन्तु पानी कितना गहरा था? कहीं ऐसा न हो कि पानी उथला हो और ऊपर से कूदने पर चोट आ जाए। किन्तु, अन्य उपाय भी कोई नहीं था। कूदना तो होगा ही। हनुमान के शरीर पर उत्तरीय नहीं था। बहुत आवश्यक होने पर ही वे उत्तरीय लेते थे, अन्यथा काम-काज में बाधा मानकर, उससे मुक्त ही रहते थे। धोती को यद्यपि उन्होंने कस रखा था; किन्तु तैरने में कदाचित् वह विघ्नकारक हो, सोचकर उसे घुटनों से भी ऊपर समेटकर, कमर से भली प्रकार कस लिया। हाथ से टटोलकर देखा : राम की दी हुई मुद्रिका सुरक्षित थी।
मुड़कर उन्होंने अपने साथियों की दिशा में हाथ हिलाकर, अपने जाने का संकेत किया और जल में छलांग लगा दी। पानी जोर से उछला और हनुमान को उसने अपने भीतर छिपा लिया। कुछ क्षणों के पश्चात् दस हाथ आगे जाकर हनुमान जल से ऊपर उभरे। उनकी गर्दन और कंधे पानी के ऊपर दीख रहे थे और लम्बी-गया भुजाओं से पानी को परे धकेलते हुए वे धनुष से छूटे वाण के समान लपके जा रहे थे।
जल बहुत ठंडा नहीं था। गहरा भी बहुत अधिक नहीं था; किन्तु व्यक्ति को डूबा देने भर को पर्याप्त था। यहां पानी में तरंगें नहीं थीं; जल जैसे सोया हुआ-सा हो।...सौ हाथ जाते-जाते ही एक बात हनुमान के मन में स्पष्ट हो गईः यहां कोई बड़ा और घातक जल-जंतु नहीं था, जिससे गभीर रूप में आहत होने अथवा प्राण गंवाने का संकट हो; पानी के नीचे बिछी, छोटी-बड़ी शिलाओं, छोटे-मोटे ढूहों तथा पहाड़ियों के कारण, यह स्थान बहुत सुरक्षित भी नहीं था। इस प्रकार के जल में, अत्यन्त सावधान रहकर चलने की आवश्यकता थी, अन्यथा जल को धकेलने के लिए फेंका गया हाथ अथवा पैर, अपने वेग में पूरे बलपूर्वक किसी शिला से टकराकर, आहत हो सकता था। सागर का यह क्षेत्र कदाचित् इन्हीं जलमग्न शिलाओं के कारण, परिवहन के लिए निरापद नहीं था। अनुपयोगी समझ कर ही, राक्षसों ने इस ओर अपना आवागमन नहीं रखा था। तभी तो यह क्षेत्र निर्जन है। संपाति इस तथ्य से परिचित थे-इसलिए उन्होंने यहां से यात्रा करने का निर्देश किया होगा।
क्रमशः शिलाओं के ऊंचे उठते जाने के कारण जल उथला होता गया। कदाचित् महेन्द्र पर्वत का क्षेत्र आरम्भ हो गया था। जल्दी ही हनुमान अपने पैरों को शिलाओं का स्पर्श करते हुए पाने लगे। जल की गहराई बहुत कम जानकर, उन्होंने तैरना अनावश्यक समझ, शिला पर पैर टिका, खड़े होने का प्रयास किया ही था कि वे फिसलकर गिर पड़े। यदि वे इतने सावधान न रहे होते तो वे उन उबड़-खाबड़ और स्थान-स्थान से नुकीली शिलाओं पर बड़े बेढ़ब ढंग से गिरते और कदाचित् कोई-न-कोई बड़ा घाव अवश्य लगता...किन्तु उन्होंने अभी पूरी तरह अपना बोझ पैरों पर नहीं डाला था, इसलिए पुनः तैरने की मुद्रा में आ गए।...हनुमान समझ नहीं पा रहे थे कि अपनी स्थिति पर वे हँसे या शोक मनाएं : वहां शिलाओं के ऊपर दो हाथ भी पानी नहीं था, जहां वे तैरने का प्रयत्न कर रहे थे। काई जमी, फिसलन-भरी उन शिंलाओं पर पैर रखकर वे खड़े नहीं हो सकते थे; और दो हाथ गहरे जल मे वे खुलकर हाथ-पैर भी नहीं चला सकते थे। पद्रह-बीस हाथ की दूरी हनुमान ने बड़ी जोखिमपूर्ण स्थिति में पार की। उनकी इच्छा हो रही थी किसी प्रकार वे महेन्द्र पर्वत के मुख्य भाग के निकट पहुच जाएं और किसी वृक्ष का झुकी हुई डाली, अथवा ठोस चट्टान के सहारे सूखे क्षेत्र तक पहुंच जाएं। किन्तु, पन्द्रह-बीस हाथ की उस दूरी को पार करने में ही जैसे युग बीत गए।...महेन्द्र पर्वत पर पैर पड़ते ही उन्हें लगा, जैसे वे किसी असाधारण जोखिम को पार कर आए हों।
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